फिर ‘मोर्चे’ कि बात चली है,
फिर ‘मोर्चों’ का मौसम आया है,
आओ हम भी एक मोर्चा बनाएँ,
आओ एक ‘मोर्चे’ में शामिल हो जायें,
नाम चाहे कोई भी रख लो
पर भ्रष्टाचार से झोली भर लो,
मोर्चा तो एक बहाना हैं
जनता को लूटकर हमें तो बस
अपना काम बनाना हैं
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एक तरफ है ‘मोर्चा’ अमीरी का – सत्ता का,
एक तरफ है ‘मोर्चा’ उद्दंड, दबंग और दहशत गर्दों का ,
राज इन्ही दो ‘मोर्चों’ का चलता है
सिर्फ कहने के लिए कोई बीचमे
बार बार ‘तीसरे’ मोर्चे कि बात उठाता है,
ताकि बना रहे ‘संभ्रम’ जनता में,
और चलती रहे ‘दलाली’ इन मौकापरस्तों कि,
कहलाता है यह दलबदलुओं का,
और ‘सौदागरों’ का मोर्चा,
होतें है इसमें शामिल जो रह न गए,
इधर के भी या उधर के भी,
चलते हैं दाँव जो इधर से भी और उधर से भी
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लेकिन है एक मोर्चा ऐसा भी,
जो है सबसे बड़ा भी,
मगर न जाने है क्यों, रहता हैं,
निर्विकार, निष्क्रिय और लाचार ही,
जो बस सहता है,
हर तरह के अत्याचार,
देखता है होते हुए कई ज़ुल्मों को,
पर ओढ़ लेता है स्वांग अंधेपन का,
आखिर कहाँ दिखायेगा चेहरा अपनी
बरबस मजबूरी और नपुंसकता का ….
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इन अलग अलग रंगों के मोर्चों में भाई,
खो गया है ‘मोर्चा’ ‘आम आदमी’ का ,
राजनीती कि बिसात पर देखो,
रौंदा गया है ‘मोर्चा’ ‘इंसानियत’ का !!!