कहते हैं कि ‘उम्मीद’ पे दुनिया कायम हैं,
इसलिए है उम्मीद तुझसे ही मेरी, कि जैसे है,
सृष्टि को नियम से,
नियम को परिश्रम से,
तपिश को ठंडक से,
रेगिस्तान को हरियाली से,
क्षुधा को खुराक की,
तृषा को जल से ,
लहर को किनारेसे,
निराशा को है आशा से,
धरती को सूरज से,
अग्नि को वायु से,
इंसान को इंसानियत से,
आत्मा को परमात्मा से,
और रिश्तों को ‘विश्वास’ की है उम्मीद !
यह रिश्ता टूट न जाये कभी,
बंधी रहे डोर पंचतत्व की इस जीवन से,
चलता रहे कारवां जिंदगी का यूँही,
यही सोचकर,
आज,
फिर ‘उम्मीद’ के ‘बादल’ घिर आये है,
और छायी है ‘घटा’ ‘विश्वास’ की,
लुटा दे हम पर तेरी ‘दया’ का ‘सागर’,
……… बरस जा अब तो !
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बहोत सही लिखा है …..
🙂
रिश्तों को ‘विश्वास’ की है उम्मीद !
Wow! Very touche sirji!!
बहोत खूब लिखा है सर.. उम्मीद पे ही तो दुनिया चलती है.. 🙂
फिर ‘उम्मीद’ के ‘बादल’ घिर आये है,
और छायी है ‘घटा’ ‘विश्वास’ की..
Great lines.. उम्मीद और विश्वास ही तो जीने के सबब है.. 🙂
Very Good Poem
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